दशकों पहले रमजान उल मुबारक में भोपाल में तोपें गोले उगलती थीं। इनकी गर्जना कई किलोमीटर तक सुनाई देती थी। इसके बाद लोग सेहरी और इफ्तार करते थे। ईदुल फितर और ईदुल अजहा पर भी तोप की गूंज सुनाई देती थी। ये एक रिवायत थी।
अब इसकी जगह तेज आवाज के पटाखों ने ले ली है, परंतु भोपाल रियासत का एक हिस्सा रहे रायसेन में ये रिवायत बरकरार है। दरअसल, भोपाल में करीब 242 साल नवाबी शासन रहा। यहां के शासकों का रिश्ता अफगानिस्तान से होने के कारण वहां की छाप इनके क्रियाकलापों में दिखाई देती थी।
आधुनिक उपकरण नहीं थे, तो रियासत की तोपों का करते इस्तेमाल
सात दशक पहले तक भोपाल आधुनिक शहर नहीं था। आज ताे रमजान में सेहरी और इफ्तार का वक्त मोबाइल, घड़ी अलार्म, सोशल मीडिया आदि से पता चल जाता है, लेकिन तब वक्त बताने के लिए आधुनिक उपकरण नहीं थे। लिहाजा, सेहरी और इफ्तार का वक्त बताने के लिए रियासत की ओर से तोपों का इस्तेमाल किया जाता था।
इसके कारण दूरदराज के लोग भी जान जाते थे। तोपों के इस्तेमाल के लिए फतेहगढ़ किले के बुर्ज का उपयोग होता था। इस मंजर को देखने भीड़ भी जमा होती थी। तब शहरी क्षेत्र एक कस्बे की शक्ल में बमुश्किल 30 वर्ग किमी में सिमटा हुआ था। आबादी का बड़ा हिस्सा पुराने शहर में रहता था।
जहांगीराबाद जैसा आबाद इलाका शहरी सीमा के भीतर नहीं था। भेल, कोलार, बैरागढ़, कोटरा, मिसरोद जैसे उपनगर नहीं थे। गिने-चुने स्थानों को छोड़कर अधिकांश इलाकों में स्ट्रीट लाइट भी नहीं थीं। उस दौर में ईदुल फितर और ईदुल अजहा के दिन ईदगाह बुर्ज से तोप गरजती थी।
पूरे रमजान चलता था यह सिलसिला
एक-एक कर तीन गोले छूटते ताकि लोगों को पता चल जाए कि नमाज अदा हो गई। इस तोप का बुर्ज अब भी ईदगाह में कायम है। बुर्ज पर रखी तोप का रुख भी बड़े तालाब की तरफ रहता ताकि आम आदमी या मवेशी इसकी चपेट में न आएं। तोप गरजने का सिलसिला ईद का चांद दिखाई देने के साथ शुरू होता था।
पूरे रमजान माह यह सिलसिला चलता। इसके लिए नवाबी हुकूमत की ओर से बारूद अलॉटमेंट का परमिट जारी होता था। इसमें रोजाना उपयोग में आने वाली बारूद की मात्रा का उल्लेख रहता था। उसी अनुपात में आवंटन होता था। यहां तोप चलाने की कार्यवाही रियासत कर्मी करते थे। भोपाल और रायसेन में फर्क इतना था कि वहां सेहरी में तोप चलाने के बदले नगाड़े बजाए जाते थे।
1948 से बंद हुई यह परंपरा
भोपाल में तोप चलने की परंपरा संभवतः 1948 से बंद हुई है। इसके बाद मस्जिद से गोले (तेज आवाज के पटाखे) छोड़ने की परंपरा शुरू हुई, जो अब भी जारी है। इसके लिए प्रशासन से अनुमति ली जाती है। ईदुल फितर और ईदुल अजहा पर भी नमाज अदायगी के बाद ईदगाह से गोले छोड़े जाते हैं।